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अव॒ वेदिं॒ होत्रा॑भिर्यजेत॒ रिपः॒ काश्चि॑द्वरुण॒ध्रुतः॒ सः। परि॒ द्वेषो॑भिरर्य॒मा वृ॑णक्तू॒रुं सु॒दासे॑ वृषणा उ लो॒कम् ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ava vediṁ hotrābhir yajeta ripaḥ kāś cid varuṇadhrutaḥ saḥ | pari dveṣobhir aryamā vṛṇaktūruṁ sudāse vṛṣaṇā u lokam ||

पद पाठ

अव॑। वेदि॑म्। होत्रा॑भिः। य॒जे॒त॒। रिपः॑। काः। चि॒त्। व॒रु॒ण॒ऽध्रुतः॑। सः। परि॑। द्वेषः॑ऽभिः। अ॒र्य॒मा। वृ॒ण॒क्तु॒। उ॒रुम्। सु॒ऽदासे॑। वृ॒ष॒णौ॒। ऊँ॒ इति॑। लो॒कम् ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:60» मन्त्र:9 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:2» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें और क्या न करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (होत्राभिः) हवन की क्रियाओं वा वाणियों से (वेदिम्) हवन के निमित्त कुण्ड का (यजेत) समागम करे और जो कोई (चित्) भी (काः) किन्हीं (रिपः) पापस्वरूप क्रियाओं का (अव) नहीं समागम करे (सः) वह (वरुणध्रुतः) श्रेष्ठ से स्थिर किया गया (अर्यमा) न्यायाधीश (द्वेषोभिः) द्वेष से युक्त जनों के साथ (परि) सब ओर से (वृणक्तु) पृथक् होवे तथा (उरुम्) बहुत सुखकारक और विस्तीर्ण (लोकम्) लोक को (उ) और (वृषणौ) दो बलिष्ठों को (सुदासे) उत्तम प्रकार दान जिसमें दिया जाये, ऐसे कर्म्म में प्राप्त होवे ॥९॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् जन वेद से युक्त वाणियों से सम्पूर्ण व्यवहारों को सिद्ध करके और दुष्ट क्रियाओं और दुष्टों का त्याग करते हैं, वे ही उत्तम सुख को प्राप्त होते हैं ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्युः किं च न कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

यो होत्राभिर्वेदिं यजेत यः कश्चित् काश्चिद्रिपः क्रिया अवयजेत स वरुणध्रुतोऽर्यमा द्वेषोभिः परि वृणक्तूरुं लोकमु वृषणौ च सुदासे प्राप्नोतु ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अव) विरोधे (वेदिम्) हवनार्थं कुण्डम् (होत्राभिः) हवनक्रियाभिर्वाग्भिर्वा। होत्रेति वाङ्नाम। (निघं०१.११)। (यजेत) सङ्गच्छेत् (रिपः) पापात्मिकाः क्रियाः (काः) (चित्) अपि (वरुणध्रुतः) वरुणेन ध्रुतः स्थिरीकृतः (सः) (परि) सर्वतः (द्वेषोभिः) द्वेषयुक्तैः सह (अर्यमा) न्यायाधीशः (वृणक्तु) पृथग्भवतु (उरुम्) बहुसुखकरं विस्तीर्णम् (सुदासे) सुष्ठु दानाख्ये व्यवहारे (वृषणौ) बलिष्ठौ राजामात्यौ (उ) (लोकम्) ॥९॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वांसो वेदयुक्ताभिर्वाग्भिस्सर्वान् व्यवहारान् संसाध्य दुष्टक्रिया दुष्टांश्च त्यजन्ति त एवोत्तमं सुखं लभन्ते ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्वान वेदयुक्त वाणीने संपूर्ण व्यवहार सिद्ध करून दुष्ट क्रिया व दुष्टांचा त्याग करतात ते उत्तम सुख प्राप्त करतात. ॥ ९ ॥